ये पंक्तिया जो भोपाल में बैंक के ट्रेनिंग कॉलेज में बिताए कुछ दिनों में लिखी थी ,,,, पेश-ऐ-खिदमत है ...
जहाँ रौशनी दिखाई दी, उधर ही चल दिए
उसे पाने की आस में, सहसा ही चल दिए |
वक़्त बेवक्त सताती है यादें उनकी
वो ख्वाब में आये और नींद उड़ा कर चल दिए |
छौड़ के इस हाल में मुझको वो कुछ यूँ हुए रुखसत
मानो के जलसा देखने आये थे, चल दिए
छौड़ के इस हाल में मुझको वो कुछ यूँ हुए रुखसत
मानो के जलसा देखने आये थे, चल दिए
जलाये थे चिराग अरसे से, जिनकी इंतज़ार में
वो बेरहम आये तो 'मौन', पर बुझाकर चल दिए |