पिछले दिनों ग़जल लिखने की एक और कोशिश की, पेश-ऐ-खिदमत है
ये बरस भी बीता जाये, उसकी कोई खबर न आई |
सावन की भीगी रातो को, जैसे तैसे काटा मैंने
कोहरे की जब बदली छाई, और भी मुझको वो याद आई |
उसको भूल पाने की, कोशिश करना बेमानी है
घर में मेरे शीशे बहुत है, सबमें उसकी ही परछाई |
पहले "मौन" भी पत्थर दिल था, दीवानों पर हंस देता था
खुद को यूँ दीवाना पा कर, मेरी आँखें भी भर आई |
©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"
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