Sunday, July 9, 2017

पहला प्यार...

बहुत पुरानी बात है 
तीसरी कक्षा में पढ़ते थे 
गंगापुर में रहते थे |

मिशन स्कूल के क्लासरूम में बैठे-बैठे पहले दिन 
देखा एक लड़का हाथ में लिए था मेरी पेंसिल |
आव देखा न ताव मैं लगा उससे लड़ने 
छीना-झपटी में पेंसिल टूटी और लगे जूते पड़ने 
मैं हड्डी वो मोटू था लगाए मुझे चांटे 
तभी बगल से एक लड़की बोली "अरे ओ मोटे"

वो आवाज सुनकर मुझे बचने की उम्मीद नजर आई 
मुड़कर देखा तो एक सुन्दर सी लड़की नजर आई 
वो बोली क्यों पीटता है इसको ये नया लड़का है 
कितना मासूम सा और कितना भोला दीखता है 
जान बचाई उसने मेरी और अपना टिफ़िन भी खिलाया 
मेरी पेंसिल मेरे बैग में ही थी ये भी दिखलाया 

ये देख वो मोटू जल के राख हो गया 
और मुझ छः साल के बच्चे को पहला प्यार हो गया |

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

गाँव और शहर

हमारे घरों में अब मेहमां पुराने नहीं आते,
परिंदे भी अब घोसले बनानें नहीं आते |

जबसे रुख किया है इस शहर का हमने,
ख्वाब भी अलसुबह सुहाने नहीं आते |

सावन का महीना या नवरात्र निकल जाए,
अब कहीं मंदिर में जल चढाने नहीं जाते|

चाँद तारे रातों को मुंडेर पर साथ सोते थे,
अरसा हुआ हम सोने छत पर नहीं जाते |

यारों से मिल बैठे हुए अरसा बीत गया,
कुछ हम नहीं जाते तो कुछ वो नहीं आते |

क्या हासिल किया हमने गावों को छोड़कर,
माँ बाप भी हमसे मिलने शहर को नहीं आते |

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

ये शहर फिर शहर सा लगने लगा है

लग रहा है कुछ दीवाने आ गए है शहर में,
ये शहर फिर शहर सा लगने लगा है |

लगता है फिर कोई राज़ है उसके सीने में,
वो अब कुछ और शगुफ्ता रहने लगा है |

चाहूँ न चाहूँ हर वक़्त मुझको,
उसका ही ख्याल रहने लगा है |

वो दुनिया में न आया पर अभी से,
वो दिलो-दिमाग में रहने लगा है |

जबसे उसने ये खबर सुनाई है मुझको,
इन कंधो पे वजन कुछ बढ़ने लगा है |

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"
 25/06/2017

Saturday, July 8, 2017

कुछ मिल जाए तो भिजवा देना......

बहुत कुछ भूल आया हूँ मैं घर में,
कुछ मिल जाए तो भिजवा देना |

कितनी शामों के खाने का लज़ीज़ जायका आज भी,
देखना वहीँ कहीं 
खाने की टेबल पर रखा होगा|
खाते खाते बड़ी बड़ी बातें 
और बेमतलब की गुफ्तगू,
हरी मिर्च -सरसों का अचार 
और गरम खाने की खुशबू 
वहीँ कहीं रसोई के बगल में छूट गयी है 
मिल जाए तो भिजवा देना |

बरामदे में जहाँ  वो एक फाख्ता का घोसला था 
और कुछ चिड़ियों ने 
अवैध कब्ज़ा किया हुआ था,
सर्दी के मौसम के कुछ 
रविवारों की दोपहरियाँ 
उसी बरामदे में कहीं छूट गयी है 

मिल जाए तो भिजवा देना 

छूट गयी है कुछ बारिश की शामें भी वही पीछे के गलियारे में,
और टिन की छत पर गिरती
बूंदों की स्वर लहरियां भी |
क्यारियों में फूलों की पंखुड़ियों पे 
उन अलसाई सुबहों में रखी
कुछ ओस की बूंदें छूट गयी हैं 
मिल जाए तो भिजवा देना |

वो मौसमी फूलों के पौधे जो बोये थे आँगन की क्यारियों में,
पर कभी उगे ही नहीं,
वो गिटार जो सीखने को खरीद लाया था मैं,
पर कभी सिखा ही नहीं,
वो हजारो लम्हे और उन लम्हों में हजारों किस्से,
मुझे याद है वो सब कुछ जो कभी हुआ ही नहीं,
फिर भी उन लम्हों में से 
कुछ मिल जाए तो भिजवा देना |

बहुत कुछ भूल आया हूँ मैं घर में,
कुछ मिल जाए तो भिजवा देना |

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

उनके बिना हम कितने अकेले पड़ गए जेसे दिल पर कईं तीर नुकीले पड़ गए उदु के साथ वक्त ए मुलाक़ात पर हमें देख कर वो पीले पड़ गए बीच तकरार में अपन...