जो बेटा परदेश गया था
रोशन करने नाम पिता का,
रोशन करने नाम पिता का,
उसने वापस मुड के न देखा,
पीछे
क्या है हाल पिता का।
वो पथराई बूढी आँखें,
वो पथराई बूढी आँखें,
रस्ता
तकती बेटे का,
कहाँ गया वो आँख का तारा,
कहाँ
गया वो लाल पिता का ।।
बीमारी से झरझर काया
उमर ने अपना रूप दिखाया,
उमर ने अपना रूप दिखाया,
सूनी घर की चारदीवारी,
हाल
पूछने कोई न आया।
जब जब घर से बाहर निकले
वो ऐसी मजबूरी में,
आस पड़ोसी सारे पूछे
ऐसा क्यों है हाल पिता का
।।
सारा जीवन जिसकी खातिर,
उसने
सारे सुख बेचे,
खुद भूखा रह मुफलिसी में,
जिसको
सारे सुख सौंपे।
अंतिम पल में शरशय्या पर,
लेटा
लेटा सोचे बाप,
क्या मुझको वो कांधा देगा,
या
होगा अपमान पिता का।।
फोन आना बंद हुए और
खेर खबर भी न आई,
खेर खबर भी न आई,
उसके आने की उम्मीदें भी
टूटती नजर आई |
टूटती नजर आई |
क्या खोया और क्या पाया की
उधेड़बुन में आखिरकार,
यही नतीजा निकल के आया,
यही नतीजा निकल के आया,
यही
लिखा है भाग्य पिता का।
©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"
बहुत भावुक है।
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