और फिर मैं उसे छोड़ कर वतन, चला आया,
की जैसे रूह को छोड़कर बदन, चला आया ।
उसकी खुशबू मेरे जिस्म से चली न जाए कहीं
सो मैं नहाया नहीं, ओढ़कर थकन, चला आया।
उसके खयालों से बाहर आना चाहा जब भी
एक झोंका, ले उसकी यादों का वजन, चला आया।
याद रख कर हर एक सामान साथ ले आया
पर छोड़ के सबसे अनमोल रतन, चला आया।
कहाँ वह नीम की डाली, वह पीपल की छांव
"मौन" यूँ छोड़ के आंगन का चमन, चला आया।
© लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"
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